पहाड़ों में लोक संस्कृति के संवाहकों के वाद्य यंत्र की कला विलुप्त होने कगार पर

मनोज नौडियाल

रिखणीखाल।पहाड़ों में लोक संस्कृति के संवाहकों के वाद्य यंत्र की कला विलुप्त होने कगार पर व कार्मिकों का अभाव होता जा रहा है।अक्सर देखा जाता है कि पर्वतीय क्षेत्रों में लोक संस्कृति की अनदेखी के कारण वहाँ के वाद्य यंत्र (ढोल, दमाऊ,मशकबीन, डौंर, हुड़का, रणसिन्घा आदि)के संवाहक कलाकारों की कमी होती जा रही है,जो कि पहले से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही थी।इस कार्य को अपने पिता,दादा,परदादा से निपुणता हासिल करती रही।लेकिन अब देखा गया है कि सरकार की उदासीनता व रुचि न लेने के कारण नये कलाकार उभरकर नहीं आ रहे हैं तथा अब शर्मिन्दगी महसूस कर रहे हैं। ये सब सरकार से प्रोत्साहन व उचित मानदेय न मिलने से हो रहा है।अब जो बचे खुचे वाद्य यंत्र के कलाकार हैं वे भूखमरी की कगार पर पहुँच गये हैं। पहले समय मेें परदादा, दादा,पिता की विरासत संजोये रहते थे तथा पेशे को छोड़ते नहीं थे।लेकिन अब विलुप्त होता जा रहा है।
सरकार को इन वाद्य यंत्र कलाकारों को उचित मंच देकर इनका निरन्तर प्रोत्साहन देना चाहिए तभी ये कला जीवित रह पायेगी। ये लोग कई सालों से इस ढोल विद्या, जागर प्रथा को ढोते आ रहे हैं। अब इनको उचित मानदेय देकर इनका हौसलाअफजाई करना होगा तभी नये कलाकार उत्पन्न होंगें।
इसी कड़ी में जब रिखणीखाल प्रखंड के ग्राम द्वारी के ढोल व जागर सम्राट राजू जागैया का कहना है कि अब हमारे बच्चे रुचि नहीं ले रहे हैं, ये प्रथा तभी तक जीवित है जब तक हमारी पीढ़ी है,बाद में थाली बजाने वाला तक नसीब नहीं होगा।वे कहते हैं ये कामकाज हम कयी पीढियों से चलाते आ रहे हैं, अगर सरकार अभी भी नहीं जागी तो ये वाद्ययंत्र गुमनाम हो जायेगें। सरकार को हमारी नयी पीढी को प्रोत्साहन देकर व उचित मानदेय देकर इस कार्य को आगे बढ़ाना होगा।राजू जागैया ढोल,डौंर, हुड़का में जागर लगाने के विशेषज्ञ हैं सिर्फ पिछडे हैं तो उचित मंचन न मिलने व प्रचार प्रसार न होने के कारण व सरकार की उपेक्षा होने से गुमनाम रहे हैं। उन्होने अपनी पीड़ा जताकर सरकार का ध्यान आकर्षित करने को कहा है।

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