तुलसी बिष्ट
आजमाईश कीतनी करनी है
मेरे धीरज की
मैं शिला से भी कठोर हूँ
जो जिद पर आ जाऊँ
मेरी निर्मलता जानना चाहो
तो जल से भी सहझ हूँ जब तुम प्रेम से पेश आओ
हद उतनी है मेरी
जितनी मैंने जानी है
जितनी मुकर्रर की है मैंने
खुद के लिए
नादान न समझ
समझ में भी रखती हूँ
तू मुझको न परख
मैं भी परखती हूँ अंत तक तुम्हें
हाँ पारस की भी चाह नहीं मुझको
पर पत्थर पर भी
सिर नहीं पटकना मुझको