बरखा तेरी डौल-डाल,सब जन गैनें भूल

रैबार–विमल चन्द्र काला

बरखा तेरी डौल-डाल,सब जन गैनें भूल।
धरती,आकाश,ताल,तलैय्या,सब जगा हवे गे धूल।।
आसमान पर हर नजर,कालो बादल बणगे लाल।
करव गै तेरी उमड़-घूमड़ जब लगदो छौ अब मरदी फाल।।
सरग को गिगड़ाट तेरो,धरती पर कुयेड़ा को जाल।
हर पल गर्जना भयंकर तेरी,घटा होंदी छै बिजली से लाल।।
तेरा बरखा का घीड़ों से,धरती होंदी हैं सारी तर्र।
लरका-तरकी गाड़-गदीना,असंख्य कितना जांदा छा मर।।
चारों तरफ गाड़-गदेरा,पाणी को स्वींस्याट बड़ो।
धरती सारी हरी-भरी,जख दिखेंदो घास-पात खड़ो।।
नदी बणदी छै बड़ी भयंकर,बगैकी लौंदी सांदण खैर।
रंग बिरंगा छतरा लेकी,जांदा मनखी ड़ेली से भैर।।
मुंगरी,कखड़ी,कददू,करैला,चचेण्ड़ा,गोदड़ा लगदा भरमार।
कोदेड़ी सारी दाल गौथ,होंदा झगोरों सटेड़ी सार।।
तेरा बाना क्या नि करे,कीर्तन भजन हवेने दिन-रात।
सुमड़ी को इन्द्रगवन पुजेगे,पर नि रै तेरा हाथ की बात।।
सुण ले हम ज्यूंदा ऐनी सकदा,वरना खबर लेंदा हातों-हात।
भ्रमित छां क्या मची खलबली, जो नि रै इंद्र का हात की बात।।
इन्द्रासन हथियाण क्या,देवता करना उग्रवाद।
अगर हवै गे हो इन अनहोनी, ब्रह्मा विष्णु सोचन ई बात।।
ब्रह्मा,विष्णु,महेश मा,क्वी इन्द्रासन पर बैठी करदा बरसात।
अन्न को दाणीं सब कुछ हों दों,पाणी बढ़दो हातो-हात।।
हे निर्दयी तिन क्या यो करे,अन्न की दाणी नि क्वी आस।
मनखी त बिना अन्न मरला,गोरु मरला बिना घास।।
लठयाला कन कपली हुंचे तेरी,मनखी त खालें खाला,गोरु मरला जरूर।
सदनी नि चलणी चुच्चा,छोड़ दे अपणो अवरखणो गरुर।।
दोहा-देखले सब का मुंण्ड मा,अपणों-अपणों भार।
हौरुंकी चिन्ता छोड़ पगला,पैले अपणू बोझ उतार।।
गढ़वाली कवि- विमल चन्द्र काला (गोपी) सुमाड़ी,

श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड

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